लड़कियों को आरंभ से ही यह शिक्षा दी जाती है कि उन्हें घर के अन्य लोगों की सेवा करनी है। ससुराल में उनका काम केवल पति व परिवार के अन्य सदस्यों की सुख-चिंता भर करना है। अपने संबंध में कुछ सोचना नहीं है; जबकि उनके सामने ही लड़कों को, भाइयों को उनकी अपेक्षा अच्छी सुविधाएँ दी जाती हैं तो उनके मन में एक हीनता की भावना जन्म लेती है और लड़कों के मन में मिथ्या अहंकार उत्पन्न हो जाता है। हीनता की यह भावना लड़कियों में कई कुंठाओं को जन्म देती है तो लड़कों में अधिकार और अहंकारपूर्ण बड़प्पन के भाव को। इसकी उपेक्षा दोंनो को ही त्याग-बलिदान करने, एकदूसरे की सुविधाओं का ध्यान रखने की शिक्षा दी जाए तो ये शिक्षा दोहरे प्रयोजन पूरे करती है। इस स्थिति के लिए गहरे प्रयत्नों की आवश्यकता है, बहुत-सी भ्रांतियों को तोड़ देना तथा आदर्शवादी धारणाओं को स्थापित करना आवश्यक है।
Girls are taught from the very beginning that they have to serve other people in the house. Her work in her in-laws house is only to take care of the happiness and worries of her husband and other family members. There is nothing to think about yourself; When in front of them boys, brothers are given better facilities than them, then a feeling of inferiority is born in their mind and false ego arises in the mind of the boys. This sense of inferiority gives rise to many frustrations in girls and a sense of entitlement and arrogant nobility in boys. Neglecting this, if both are taught to make sacrifices and take care of each other's facilities, then this education serves a dual purpose. Deep efforts are required for this situation, it is necessary to break many misconceptions and to establish idealistic concepts.
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महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने महान ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के नवें समुल्लास में स्वर्ग की परिभाषा देते हुए कहा है कि सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक होता है। स्वः नाम सुख का होता है। स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः अतो विपरीतो दुःखभोगो नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर...