सुख-दुःख सापेक्ष्य है - इस सम्बन्ध में वेदोद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती की सम्मति देखें- महर्षि का इस सम्बन्ध में जो चिंतन है, वह प्रचलित धारणा से कुछ हट कर है। महर्षि संसार को दुःखरूप नहीं मानते। उनका कथन है कि जो सब दुःख ही हो सुख कुछ भी न हो, तो सुख की अपेक्षा के बिना दुःख सिद्ध नहीं हो सकता। जैसे रात्रि की अपेक्षा से दिन और दिन की अपेक्षा से रात्रि होती है, इसलिए सब दुःख मानना ठीक नहीं। महर्षि लिखते हैं कि जो सब संसार दुःखरूप होता तो किसी जीव की प्रवृत्ति न होनी चाहिए। संसार में जीवों की प्रवृत्ति प्रत्यक्ष दीखती है,
इसलिए सब संसार दुःखरूप नहीं हो सकता किन्तु इसमें सुख-दुःख दोनों और जो बौद्ध लोग ऐसा ही सिद्धान्त मानते हैं तो खानपानादि करना और पथ्य तथा औषध्यादि सेवन करके शरीर रक्षण करने में प्रवृत्त होकर सुख क्यों मानते हैं ? जो कहें कि हम प्रवृत्त तो होते हैं परन्तु इसको दुःख ही मानते हैं तो यह कथन ही सम्भव नहीं, क्योंकि जीव सुख जानकर प्रवृत और दुःख जानके निवृत होता है।
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महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने महान ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के नवें समुल्लास में स्वर्ग की परिभाषा देते हुए कहा है कि सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक होता है। स्वः नाम सुख का होता है। स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः अतो विपरीतो दुःखभोगो नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर...