जीवनसाधना को अपने अंदर की कमियों को बारीकी से देखना चाहिए। यही आत्मसमीक्षा है। इसके पश्चात ही उस कमी को दूर करने के लिए प्रयास करना चाहिए। साधक को स्वयं के प्रति निष्पक्षता की मनोभूमि अवश्य विकसित करनी पड़ेगी। जितना तीखापन हम औरों के दोष-दुर्गुण ढूँढ़ने में रखते हैं, उससे अधिक ही अपने बारे में रखना होगा। दूसरों पर दोषारोपण करने में बहुत से कुशल व्यक्ति मिल सकते हैं, पर अपनी कमियों, दोषों को देखने का समय आज व्यक्ति के पास नहीं है।
One should look closely at the shortcomings within oneself. This is introspection. Only after this, efforts should be made to remove that shortcoming. Sadhak must develop the attitude of impartiality towards himself. The more sharpness we put into finding faults and faults of others, the more we have to keep about ourselves. Many skilled people can be found in blaming others, but today the person does not have the time to see his shortcomings, faults.
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महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने महान ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के नवें समुल्लास में स्वर्ग की परिभाषा देते हुए कहा है कि सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक होता है। स्वः नाम सुख का होता है। स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः अतो विपरीतो दुःखभोगो नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर...