शिक्षा की सार्थकता तो मनुष्य की स्वतंत्र चेतना को कुसंस्कारों की मूर्छना से विरत करने में है। उसे इस योग्य बनाने में है कि वह जीवन का स्वरूप समझ सके, समस्याओं की तह तक पहुँच सके, यथार्थ निर्णय कर सके और औचित्य को अपनाने के लिए साहसपूर्वक अड़ सके। यह संसार, मानव-जीवन सुन्दर और सुखद बनाया गया है, कुसंस्कारजन्य दुर्बुद्धि ही है, जिसने सब कुछ विकृत और दुखद बनाकर रख दिया है। इस विडम्बना से मुक्ति दिला सकने की क्षमता केवल सार्थक शिक्षा में है। शिक्षा वही है, जो मानवीय अन्तःकरण में अच्छे संस्कारों को पल्लवित कर सके, ढर्रे में घुसे हुए अनौचित्य को हिम्मत और निर्भयता के साथ निकाल का कर फेंक सके।
The significance of education lies in freeing the independent consciousness of man from the unconsciousness of bad rituals. It is in making him capable that he can understand the nature of life, get to the root of the problems, make correct decisions and stand boldly for adopting propriety. This world, human life has been made beautiful and pleasant, it is ill-cultured ignorance that has made everything perverted and sad. Only meaningful education has the ability to get rid of this irony. Education is the one, which can inculcate good manners in human conscience, can throw out the inappropriateness that has entered the pattern with courage and fearlessness.
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महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने महान ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के नवें समुल्लास में स्वर्ग की परिभाषा देते हुए कहा है कि सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक होता है। स्वः नाम सुख का होता है। स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः अतो विपरीतो दुःखभोगो नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर...