बिकाऊ प्रतिभा पैसे दे सकते हैं, शोहरत दे सकती है, पर सम्मान, आत्मसंतोष, आत्मगौरव कदापि नहीं दे सकती। शास्त्रों में दान की बड़ी महिमा गाई गई है। वेद की तो स्पष्ट उद्घोषणा ही है - शतहस्त समाहर सहस्रहस्त सं कीर। सौ हाथों से धन अर्जित करो और हजार हाथों से उसका दान करो। वहीँ श्रीमद्भागवत व गीता की स्पष्ट घोषणा है कि जो खुद कमाता है और खुद ही खाता है। कई परहित में अर्पित-समर्पित जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है, वरना अपने पेट व परिवार के लिए तो पशु-पक्षी भी लेते हैं। देना तो हमें प्रकृति भी हर-पल सिखाती है। सूर्य अपनी रोशनी, फूल अपनी खुशबु, वृक्ष अपने कल, नदियाँ अपना जल, धरती अपना सीना चलनी करके भी दोनों हाथों से हमें अन्न, जल, औषधि, फल आदि सब कुछ देते हैं।
Selling talent can give money, it can give fame, but it can never give respect, self-satisfaction, self-pride. The great glory of charity has been sung in the scriptures. There is a clear proclamation of the Vedas - Shatahasta Samahar Sahasrahasta San Keer. Earn money with a hundred hands and donate it with a thousand hands. On the other hand, there is a clear declaration of Shrimad Bhagwat and Gita that one who earns himself and eats himself. A life dedicated to many charity is the best life, otherwise even animals and birds take it for their stomach and family. To give, nature also teaches us every moment. The sun gives us its light, flowers its fragrance, trees its tomorrow, rivers its water, earth moves its chest and gives us food, water, medicine, fruits etc.
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महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने महान ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के नवें समुल्लास में स्वर्ग की परिभाषा देते हुए कहा है कि सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक होता है। स्वः नाम सुख का होता है। स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः अतो विपरीतो दुःखभोगो नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर...